Friday, January 11, 2008

सपना


इस दोड़ में,
ना मालूम क्या सोच कर,
तुम दोड़ शुरू करते हो?
जिसका खामियाजा़
नफरत से भरते हो।


हम कभी आगे होगें, कभी पीछे,
कभी ऊपर होगें, कभी नीचे,
हरिक पीछे वाला,
आगे वाले पर षड्यंत्र रचने का,
आरोप लगाएगा,
ऐसी दोड़ का क्या फायदा?
जो भाईचारा मिटाएगा।


इस दोड़ से बेहतर है,
कोई मिलकर कदम उठाएं,
जो आहत ना करे किसी को,
सब के मन को भाएं।
लेकिन ऐसी बातों को,
कौन अब मानता है?
अब आगे बढ़्नें की अभिलाषा में,
कौन कब कुचला गया,
यह बात जानता है?


तुम कहते हो-
आज मौज,मस्ती,
सुविधाओं का संग्रह,
सब सुखों को समेंटते जाना,
यही है असली जीना।
जैसा चाहो वैसा ही खाना-पीना।



तुम आज प्रकृति को,
अपने अनुकूल बनाना चाहते हो।
तभी तो हरिक कदम पर,
अपनों का लहू बहाते हो।
हरी-भरी धरती को,
बंजर बनाते हो।
ऐसा कर तुम,
क्या सु्ख पाओगे
प्राकृति के विरूध जाकर,
अपने को गवाँओगे।


यदि सच में सुखी होना चाहते हो तो,
अपनें को प्राकृति के अनुकूल कर लो,
एक सुन्दर -सा रंग तुम भी भर दो।
एक सुन्दर-सा रंग तुम भी भर दो।