इस दोड़ में,
ना मालूम क्या सोच कर,
तुम दोड़ शुरू करते हो?
जिसका खामियाजा़
नफरत से भरते हो।
हम कभी आगे होगें, कभी पीछे,
कभी ऊपर होगें, कभी नीचे,
हरिक पीछे वाला,
आगे वाले पर षड्यंत्र रचने का,
आरोप लगाएगा,
ऐसी दोड़ का क्या फायदा?
जो भाईचारा मिटाएगा।
इस दोड़ से बेहतर है,
कोई मिलकर कदम उठाएं,
जो आहत ना करे किसी को,
सब के मन को भाएं।
लेकिन ऐसी बातों को,
कौन अब मानता है?
अब आगे बढ़्नें की अभिलाषा में,
कौन कब कुचला गया,
यह बात जानता है?
तुम कहते हो-
आज मौज,मस्ती,
सुविधाओं का संग्रह,
सब सुखों को समेंटते जाना,
यही है असली जीना।
जैसा चाहो वैसा ही खाना-पीना।
तुम आज प्रकृति को,
अपने अनुकूल बनाना चाहते हो।
तभी तो हरिक कदम पर,
अपनों का लहू बहाते हो।
हरी-भरी धरती को,
बंजर बनाते हो।
ऐसा कर तुम,
क्या सु्ख पाओगे
प्राकृति के विरूध जाकर,
अपने को गवाँओगे।
यदि सच में सुखी होना चाहते हो तो,
अपनें को प्राकृति के अनुकूल कर लो,
एक सुन्दर -सा रंग तुम भी भर दो।
एक सुन्दर-सा रंग तुम भी भर दो।
aatii sunder bhav purn samsaamyik
ReplyDeleteaapki kavita bhi,photo jitni hi khoobsurat hai.....
ReplyDeleteसुन्दर रचना है...सीख भी अच्छी देती है...
ReplyDeletePrakruti mein ek sunder sa rang tum bhee bhar lo,
ReplyDeleteek sunder nayaa rang hum bhee bhar lein.
bahut sunder panktiyan hain.Utne hi sunder vichar.
All the best.
प्रेरणा दायक रचना
ReplyDeleteविक्रम
सच कहा एक सपने के लिए.........
ReplyDeleteइस दौड़ में,
ना मालूम क्या सोच कर,
तुम दौड़ शुरू करते हो?
जिसका खामियाजा़
नफरत से भरते हो।.......अब तो मुश्किल है मन के मनके में प्यार भरना
बहुत सुन्दर भाव हैं। एकदम मन को छू जाने वाले। बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteBAALI JI ,
ReplyDeleteMERE BLOG PAR AAPKI NIRANTAR DASTAK AUR SHUBHKAMNAON KE LIYE AABHAR.KUCH NAI GAZALEN BHI POST KARNE KA ERADA HAI .
AAPKE RACHNA SANSAR KI VIVIDHTA PRABHAVIT KARTI HAI.
परमजीत जी,
ReplyDeleteशुक्रिया,
हमारी रचना पर नजर इनायत करने के लिए . मैं कवि तो नहीं हूँ , लेकिन शब्दों से खेलना अच्छा लगता है और आप जैसे से लोगों के दिल को छुए तो लगता है कि कोशिश जारी रखनी चाहिए ।शायद यही सीखने का सबसे आसान तरीका है . इसी तरह राह दिखाते रहिये ...अच्छा लगता है....
शुभ नमस्ते ...
विनय
भावनाओं की खूबसुरत अभिव्यक्ति। बधाई।
ReplyDeletethe only person one can change is himself. let us do that and the world would be a better place to live.
ReplyDeleteparamjeet ji , aapki achchi kavita bahut badhai aur meri kal ki gazal par sakriya pratikriya ke
ReplyDeleteliye aabhaar .
sneh banaye rakhenge isi ummeed ke saath
DR UDAY 'MANI' KAUSHIK
KEEP WATCHING .....
http://mainsamayhun.blogspot.com
अच्छी कविता है
ReplyDeleteek sundar sa rang tum bhi bhar do
ReplyDeletehar rang sundar hota hai. kaho kaun sa rang bharu. vidambana ye hai ki log rang banna nahi sikhte. aap ki kavita rang banana sikhati hai. badhai
बहुत खूब.. अच्छा लगा आपकी कविता पढ़कर..
ReplyDeleteमैंने भी काफी पहले प्रकृति पर एक कविता लिखी थी..
हाल में ही ब्लॉग बना कर उसमे पोस्ट किया हूँ,
वक़्त मिले तो पढ़ कर बताइयेगा की कैसी लगी?
URL भेज रहा हूँ..
http://meritanhayi.blogspot.com/2008/06/dharti-maata.html
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