Sunday, March 16, 2008

हमारी संवेदनाएं क्यों मर रही हैं?


सभी जीवों में सब से ज्यादा बुद्धिमान इंसान कहलाते हैं।लेकिन यदि देखा जाए तो सभी से ज्यादा विनाश करनें वाला भी यही इंसान है।आज इस इंसान नें दुनिया को बारूदी ढेर पर बैठा दिया है।आज इंसान ही इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।लेकिन यहाँ इंसानों की बात नही कर रहा,बल्कि उन कि बात कर रहा हूँ जो अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं और वह हैं जानवर। लेकिन इंसान अपनें शोक के लिए या कहे जरा-सी शान या छोटी -सी जरूरत के लिए उनकी जान ले रहे हैं।इस विनाश को रोकनें के लिए नही के बराबर ही ध्यान दिया जा रहा है।आज जानवरों के प्रति इंसान कितना क्रूर हो चुका है यही बताना चाहता हूँ।वैसे यह क्रूरता तो सदियों से चली रही है।इंसान अपनी सुख सुविधाएं बढानें के लिए तरक्की की सीढ़ीयां तो चढता गया ।लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया उस का ह्रदय भी पत्थर का रूप धारण करता गया। आज इंसानों में दया नाम की चींज नाम मात्र ही बची है।पता नही वह भी कब खतम हो जाएगी।

करीब दो सो सालों से ब्रिटेन में भालुओं को मारा जा रहा है।वह भी उस देश की सैना द्वारा।जो "ब्रिटिश रायल आर्मी" के नाम से जानी जाती है।उन भालुओं को मारनें का कारण मात्र इतना है कि उस की खाल तथा बालों से सैनिकों की टोपियाँ बनाई जाती हैं।इस एक टोपी के लिए एक भालु को अपनी जान गवाँनी पड़ती है।सैना को हर साल करीब पचास टोपियों की जरूरत पड़ती है।इस तरह हर साल पचास भालु अपनी जान गवां रहें हैं।इन भालुओं को मारते हुए यह भी नही सोचा जाता कि जिस भालु को मारा जा रहा है वह नर है या मादा।यदि वह मादा भालु हुई तो समझिए की उस के बच्चें भी भूख के कारण अवश्य मर जाएगें।वैसे इन के खिलाफ आवाज तो उठाई गई है,लेकिन उस पर ध्यान दिया जाएगा या नही पता नही।
क्या इंसान इस तरक्की के रास्ते पर चलते हुए,अपने शोक के लिए,अपनें ह्र्दय की संवेदनाओं को भी मारता जाएगा ?बाहरी तरक्की तो बहुत जोरों-सोरों से चल रही है,लेकिन इंसान के भीतर का पतन हमें क्यों दिखाई नही दे रहा?
जरा सोचिए?

16 comments:

  1. बहुत समय अनूकूल विशय उठाया है सवेदना का मरना कहीं भी किसी भी क्षेत्र में ठीक नहीं है

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  2. भाई मान गए आपके दर्शन को.
    दीपक भारतदीप

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  3. आपने बहुत गंभीर मुद्दा उठाया है। संवेदनशील तो हम अब हो रहे हैं जब हमारी धरती का संतुलन बिगड़ रहा है और हमारा अपना अस्‍तित्‍व संकट में है। वरना जरा गौर फरमाऍं
    मिंक - कोट
    घडियाल - जूते
    सॉंप - हैण्‍ड बैग
    शेर - कालीन
    चीता - कोट
    बारहसंगा - सजावट
    यहॉं तक कि स्‍वयं इनसान की चमड़ी के जूते और इनसान की चर्बी का साबुन
    कहॉं तक गिनाइगा।
    - मथुरा कलौनी

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  4. कहीं भालू तो कहीं बाघ मारे जा रहे है । कब रुकेगा ये सिलसिला।

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  5. हम कहते तो अपने को इनंसान हे कया सच मे हमारे काम भी इनंसानो जेसे हे

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  6. आपने तो हिला कर रख दिया

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  7. aap sahikahte hai ,parso mere aage drive karte hue ek mahashya itni teji se apni car ko kat kar aage le gaye ki sadk par bakriyo ke jhund me ek kinare par chalti bakri ke pair par chad gayi ,vo bechari lagnda kar chalne lagi,un mahshya ne shayad gaur bhi nahi kiya..der tak mai sochta raha ..ham vakai samvedan heen ho rahe hai.

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  8. सचमुच संवेदनाएं कम होती जा रही हैं, अच्छा मुद्दा उठाया।

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  9. हमारे दिल और दिमाग मे सदा से एक विरोधाभास रहा हॆ और आज दिमाग दिल पर कितना भारी पर चुका है ये सब जानते है, इसलिये दिल का बेजान हो जाना तो स्वाभाविक है. मशीनी सभ्यता मे भावनाओ का स्थान नही का रह गया है...मुद्दा सवेदनशील है.

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  10. बात तो बिलकुल सही कही आपने, मगर क्या हम लोग सिर्फ सब कुछ देखते हुए भी चुप ही रहेंगे? बोलने के साथ कुछ कदम भी तो उठाने होंगे अगर कुछ गलत हो रहा है हमारे आस पास.. !!
    शुक्र है, आप कम से कम इस व्यस्त दुनिया वालो में कोई है तो सोचने वाला.. अच्छा लगा आपके विचार पढ़ कर..

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  11. शायद यह ग्लोबलाइजेशन का दुष्प्रभाव है कि हम सबसे पहले अपना स्वार्थ देख्ते हैं। यही कारण है कि संवेदनाएं स्वार्थ की भेंट चढ रही हैं।

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  12. आपकी पोस्ट बताती है कि आप कितने संवेदनशील हैं.आप और हम जैसे लोग हालांकि कम हैं किन्तु यही संवेदना आगे तक काम आयेगी,मानवता को बनाये रखने में.

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  13. bhut badhiya v bhut sahi kaha hai aapne.

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